सभ्यताओं के विकास के साथ ही साथ पूरे विश्व के सामाजिक और आर्थिक ढाँचे में एक सी समानताएँ और असमानताएँ पैदा हुईं; जो बाद में उभर कर सबके सामने आईं। तभी अमीर और गरीब का एक ऐसा भेदभाव शुरू हुआ; जिसने बाद में कई विषमताओं को जन्म दिया। राजा-महाराजाओं और प्रजा की प्रणाली भी एक विकट स्थिति थी और उसका जब अंत हुआ तो सत्ता का एक नया युग आरम्भ हो गया। यह दौर पूँजीवादियों की सत्ता का है। परोक्ष कारण अमीर का बेइंतिहा अमीर होते चले जाना और ग़रीब को उसकी ग़रीबी से उभरने न देना सत्ता का एक नया खेल शुरू हुआ है; जो विकास और प्रगतिशीलता के नाम पर पूरे विश्व में खेला जा रहा है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमीरी-गरीबी की खाई को रूस और चीन ने मिटाने की कोशिश की थी। कम्युनिज़म को अपनाया था पर आज उसका स्वरूप भी बदल गया है, वहाँ भी सत्ता अमीरों के हाथ में है विकास और परिवर्तन से लाभ पैसेवालों को हो रहा है। हर देश में यही हो रहा है। राष्ट्रवाद की आड़ में सरकारें स्वार्थी हो रही हैंआमजन की तरक्की के नाम पर पैसा पूँजीवादी कमा रहे हैं। दु:ख इस बात का है कि जनता दो वक्त की रोटी में इतनी उलझी रहती है कि स्वयं के अधिकारों के लिए लड़ने का उनके पास न समय होता है और न ऊर्जा । इसी का लाभ हर देश के सत्ताधारी उठाते हैं
पश्चिमी देशों में अगर कोई ग़रीब है तो उसे सरकारी सहायता मिलती है और अगर पेशेवर कम कमाता है तो उस पेशेवर ग़रीब को खुद ही अपनी मदद करनी होती है। पेरिस में पिछले दिनों ऐसे ही वर्ग ने 'येल्लो बास्कट' पहन कर बहुत बड़ा आंदोलन किया; जो सरकार के चुप रहने से हिंसात्मक रूप धारण कर गया। हालाँकि अपरोक्ष कारण पैट्रोल पर टैक्स बढ़ना था पर परोक्ष में अमीरी और ग़रीबी की बढ़ रही खाई है। फ्राँस के प्रेज़िडेट एम्मुल मैक्रोन को पूँजीवादियों का हिमायती कहा जाता है, जिसका कामकाजी लोगों से हैं और वह उनकी समस्याओं को समझता भी नहीं है। फ्रांस में भी अमीर बेहद अमीर हो रहे हैं और आम लोगों को बहुत संघर्ष करना पड़ता है। आम कर्मचारी बहुत कम कमा पाता है और रोज़मर्रा की चीज़ों पर टैक्स बढ़ा दिए गए हैं और ऐयाशी की चीज़ों पर टैक्स कम है और पेरिस तो फैशन और ऐयाशी की चीज़ों का गढ़ है।
यही भारत में हो रहा है। विकास, प्रगति पूँजीवादियों की हो रही है, आम जनता तो टैक्स देने में ही उलझ गई है। इन प्रतिकूल परिस्थितिओं से ध्यान भटकाने के लिए कोई मसला खड़ा कर दिया जाता है। राष्ट्रवाद' की धारणा तो इस समय पूरे विश्व में कई सरकारों ने खड़ी कर दी है। अमेरिका में इसके साथ ही रंगभेद की भावना को उकसाया जा रहा है ताकि जनता इसमें उलझी रहे और पूँजीवादी अपनी तिजोरियाँ भरते रहें। एक लम्बे गृहयुद्ध के बाद इस रंगभेद को समाप्त किया गया था। इससे प्रेम, सद्भावना और मानवता को बढ़ावा मिला था। कभी अमेरिकी सरकार ने जापान, फिलीपाइन और दक्षिण कोरिया की उनके संकट के दिनों में मदद की थी। जबसे अपना देश और अपनी नस्ल बचाओ की भावना प्रबल हुई है, दुनिया के शोषितों, दलितों, पीड़ितों की पुकार किसी के कानों तक नहीं पहुँचती। सीरिया के लोगों का दर्द कोई सरकार सुनना नहीं चाहती, सुनेगी भी नहीं। इस समय पूरे विश्व में एक ही मानसिकता की आँधी चल रही है, वह है पूँजीवादियों की सत्ता का आधिपत्य। वे वहाँ ध्यान देना चाहते हैं, जहाँ निवेश है, बाज़ार है।
सत्ता का आधिपत्य। वे वहाँ ध्यान देना चाहते हैं, जहाँ अमेरिका में एक लंबे समय से हूँ, काफी विश्व घूम चुकी हूँ। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को निष्पक्ष देखना आदत में शुमार हो गया है। हर देश की जनता बहुत भोली होती है, बेहतर जीवन के सपने देखती है और ज्योंही कोई उन्हें वह सपने दिखाता है, बड़ी जल्दी बहकावे में आ जाती है। पूरे विश्व में अर्थ प्राप्ति की जो मानसिकता व्याप्त हो गई है, उसमें जीवन मूल्यों के ह्रास का पुट भी मिलता है, यह मानवता को विनाश के कगार पर ले जा रहा है और त्रासदी यह है कि कोई इसे समझना नहीं चाहता और हर देश का राजनीतिज्ञ इस परिस्थिति का लाभ उठा रहा है; क्योंकि वह जानता है कि अंत में पिसेगी तो भोली-भाली जनता, किसी नेता को कभी कोई नुक्सान नहीं हुआ।
विभोम-स्वर पत्रिका जब आपके हाथों में पहुँचेगी तो 2018 का वर्ष विदा ले चुका होगा और 2019 का वर्ष आपके जीवन में प्रवेश कर चुका होगा। मैं बस यही कामना करती हूँ कि नया वर्ष वैश्विक स्तर पर बिगड़ रही परिस्थितिओं को सुधारे और हरेक को सुखशांति प्रदान करे। साहित्यिक जगत् को भी साहित्यकार नई-नई उपलब्धियों से समृद्ध करें। विभोम-स्वर और शिवना साहित्यिकी की टीम की ओर से आप सबको नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएँ!!! नया वर्ष आप सबकी मनोकामनाओं को पूरा करे। आपकी, 2. सुधा ओम ढींगरा