पिछले दिनों किसी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक पोस्ट को पढ़ रहा था। उसमें इन दिनों देश भर में आयोजित हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल्स की पोल किसी अज्ञात सूत्र' के माध्यम से खोली गई थी। मैं चूँकि पत्रकारिता से आया हूँ, इसलिए मुझे पता है कि जब भी बात किसी अज्ञात सूत्र' के माध्यम से की जा रही होती है, तो वास्तव में अज्ञात सूत्र' कुछ भी नहीं होता है, हम अपनी ही बात कह रहे होते हैं। अज्ञात सूत्र' वास्तव में हमारे ही अंदर का अज्ञात कोना होता है। तो बात चल रही थी कि लिटरेचर फेस्टिवल्स को लेकर बहुत कुछ पोल-खोल टाइप का सनसनीखेज अंदाज में लिखा गया था। मैं स्वयं पिछले दो माह में तीन फेस्टिवल्स में शामिल हुआ, और अज्ञात सूत्र' द्वारा दी गई जानकारी जैसा कुछ भी मुझे महसूस नहीं हुआ। हाँ यह ज़रूर महसूस हुआ कि फ़िल्म और टीवी से जुड़े हुएलोगों को लेकर दर्शकों में अतिरिक्त उत्साह होता है, साहित्य को लेकर उतना नहीं होता। मगर जैसा कि अज्ञात सूत्र ने कहा कि वहाँ साहित्यकार को कोई नहीं पूछता, वो अपने जेब का पैसा लगा कर जाता है, जैसा कुछ भी नहीं था। 'साहित्य आज तक' में आयोजकों की मेहमाननवाजी का मैं क़ायल होकर लौटा हूँ और लगभग यही स्थिति 'देहरादून लिट फेस्टिवल' की रही। मुझे हैरत है कि 'अज्ञात सूत्र' ने जो कुछ जानकारी प्रदान की है, वह किसी लिट फेस्ट की है ? उस पोस्ट को पढ़कर मैं दुखी भी था, दुखी इसलिए कि केवल इसलिए क्योंकि आपको कहीं बुलाया नहीं जा रहा है, आप पूरे आयोजन पर ही प्रश्नचिह्न उठाने से भी नहीं चूक रहे हैं। आप यह भी नहीं सोच रहे हैं कि आप 'अज्ञात सूत्र' के माध्यम से जो भ्रामक बातें कह रहे हैं, उनका कितना विपरीत असर आपके ही साथियों पर हो रहा है। हिन्दी साहित्य इन दिनों एक अजीब सी असुरक्षा के दौर से गुजर रहा है। असुरक्षा यह कि हर जगह मैं उपस्थित रहूँ। हर किताब में मेरी रचना हो । हर विशेषांक में मेरी रचना हो। हर पुरस्कार, सम्मान में मेरा नाम हो। हर आयोजन में मैं मंच पर रहूँ। यह असुरक्षा सभी को नुकसान पहुँचा रही है। आप एक साथ कितनी जगहों पर हो सकते हैंभला ? मगर नहीं... आप चाहते हैं कि ऐसा ही हो। लिटरेचर फेस्टिवल्स में हिन्दी के लेखकों की उपस्थिति इन दिनों बहुत प्रभावी होकर दिखाई दे रही है। और इसके लिए उन लेखकों का पाठक वर्ग है। कुछ वर्षों पूर्व तक हम इस बात पर अफ़सोस जताते थे कि लिटरेचर फेस्टिवल्स में हिन्दी का लेखक क्यों दिखाई नहीं देता, अब जब लेखक वहाँ पहुँचने लगा है, तो हमें अब यह अफ़सोस होने लगा है कि हम वो लेखक क्यों नहीं हैं ? लिटरेचर फेस्टिवल्स की अपनी दुनिया है, वह दुनिया गंभीर नहीं है, वह वैसी ही है, जैसे हमारे यहाँ लगने वाले मेले-ठेले होते हैं। अज्ञात सूत्र' ने जो कुछ जानकारी दी, वह कहाँ की थी, किस लिटरेचर फेस्टिवल की थी, यह सूचनाएँ भी उनकी पोस्ट में नहीं थी। शायद वह जानकारी भी 'अज्ञात सूत्र' की ही तरह किसी अज्ञात लिटरेचर फेस्टिवल की ही थीहम पत्रकार अक्सर इस वाक्य का उपयोग करते हैं -'नाम न छापने की शर्त पर हमें अज्ञात सूत्र ने यह जानकारी प्रदान की।' प्रश्न यह उठता है कि 'अज्ञात सूत्र' का उपयोग कर क्या आप किसी सफेद झूठ को भी सच की तरह लोगों के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं ? और इस प्रकार कर सकते हैं कि अपने ही लोगों को, अपने ही समाज को, अपनी ही बिरादरी को प्रश्नचिह्न के दायरे में ले आएँ। कारण केवल यह कि हाय हम ही क्यों न हुए वहाँ पर ? जो वहाँ थे, वो ही वहाँ क्यों थे? हम यह नहीं सोचते कि जहाँ हम थे, वहाँ वो नहीं थे, वहाँ तो हम ही थे। आसमान में हर तारे के लिए जगह होती है, आसमान कभी छोटा नहीं पड़ता। इस बारे में सोचिए.. यह सोचना जरूरी है..।
अज्ञात सूत्र और लिटरेचर फेस्टिवल